पत्रकार लक्ष्मी नारायण पांडेय के पिता का निधन, बगोदर विधायक नागेंद्र महतो शोक में पहुंचे
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नव॰, 23 2025
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जब कोई पत्रकार अपने पिता को खो देता है, तो वो बस एक व्यक्तिगत शोक नहीं होता — वो एक समाज के लिए एक अहम संकेत भी होता है। लक्ष्मी नारायण पांडेय, जो गिरिडीह के सरिया थाना क्षेत्र के चन्द्रामानी गांव के निवासी हैं, उनके पिता बालेश्वर पांडेय का निधन हो गया। निधन की खबर फैलते ही, बगोदर विधानसभा क्षेत्र के विधायक नागेंद्र महतो सीधे उनके घर पहुंचे। ये सिर्फ एक शोक संवेदना नहीं, बल्कि एक ऐसा संकेत है जो बताता है कि यहां लोग अभी भी एक-दूसरे के दर्द को समझते हैं — चाहे वो एक पत्रकार हो या किसान।
एक साधारण पिता, एक असाधारण सम्मान
बालेश्वर पांडेय के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिल पाई। उनकी आयु, बीमारी, या निधन की ठीक तारीख — सब कुछ अज्ञात है। लेकिन जो जानकारी मिली, वो काफी है। उनके बेटे लक्ष्मी नारायण एक दैनिक अखबार के पत्रकार हैं — जिनका काम है दर्द को दर्शाना, अनदेखा बातों को उजागर करना। और आज, जब उनके घर में दर्द आया, तो राजनीति ने उसे अनदेखा नहीं किया।
नागेंद्र महतो ने कोई बयान नहीं दिया। कोई फोटो नहीं लिया। कोई ट्वीट नहीं किया। बस वो आए। उनके साथ पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और कई स्थानीय गणमान्य लोग भी थे। ये वो तरीका है जिससे गांव के लोग अपने नेताओं को याद करते हैं — जब दरवाजे पर आकर दर्द बांट दें, तो वो नेता बनते हैं।
क्यों इतना ध्यान? पत्रकार का स्थान
हम अक्सर भूल जाते हैं कि पत्रकार बस खबर नहीं लिखते — वो लोगों की आवाज़ बन जाते हैं। जब कोई गांव का बच्चा अस्पताल नहीं पहुंच पाता, तो पत्रकार उसकी कहानी छापता है। जब नदी बाढ़ में आ जाती है, तो वो जानकारी देता है। लेकिन जब उनके घर में मौत आती है, तो क्या कोई उनके लिए आता है?
यहां आया। बिना किसी घोषणा के। बिना किसी फोटो के। बस एक दर्द को समझने के लिए। ये बात बहुत बड़ी है। आज के समय में, जहां लोग शोक में फोटो लेते हैं और सोशल मीडिया पर डाल देते हैं, वहां एक विधायक का बिना बयान के आना — ये एक अलग तरह का सम्मान है।
गिरिडीह की जमीन, अभी भी इंसानियत की जमीन
गिरिडीह के बारे में बहुत कम बात होती है। लेकिन यहां अभी भी वो पुरानी जमीन है, जहां एक आदमी के निधन पर दूसरा आदमी बिना बुलाए आ जाता है। ये नहीं है कि यहां कोई बड़ा राजनीतिक बदलाव हुआ। बल्कि ये है कि यहां लोग अभी भी एक-दूसरे के लिए इंसान बने हुए हैं।
बालेश्वर पांडेय शायद कभी किसी बड़े संगठन में नहीं रहे। शायद कभी किसी समारोह में नहीं बैठे। लेकिन उनका बेटा, एक छोटे से अखबार के लिए लिखता है — और उसके लिए एक विधायक आया। ये वो जगह है जहां शक्ति का असली मापदंड नहीं, बल्कि इंसानियत का मापदंड है।
अगला कदम: शोक का अंत नहीं, शुरुआत है
अभी तक बालेश्वर पांडेय के अंतिम संस्कार की कोई जानकारी नहीं मिली। लेकिन जब वो होगा, तो शायद उस दिन भी वही लोग आएंगे — जो आज आए। शायद कोई नया भी आएगा। कोई ऐसा आदमी जिसने पत्रकार की एक खबर पढ़ी थी और उसके दिल में बैठ गया था।
ये निधन एक अंत है। लेकिन ये एक नई शुरुआत का भी संकेत है — कि जहां लोग अभी भी दर्द में एक साथ खड़े होते हैं, वहां लोकतंत्र बस चुनाव नहीं, बल्कि संवेदना है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
लक्ष्मी नारायण पांडेय किस अखबार के लिए काम करते हैं?
स्रोतों में उनके लिए काम करने वाले अखबार का नाम स्पष्ट रूप से नहीं दिया गया है। लेकिन उनका काम गिरिडीह जिले के स्थानीय समाचारों को उजागर करना है, जिसमें गांवों की जरूरतें, सरकारी योजनाओं का प्रभाव और आम लोगों की समस्याएं शामिल हैं। ऐसे पत्रकार अक्सर छोटे स्थानीय अखबारों या ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स के लिए काम करते हैं।
बगोदर विधायक नागेंद्र महतो किस दल से हैं?
स्रोतों में नागेंद्र महतो के राजनीतिक दल का उल्लेख नहीं है। हालांकि, बगोदर विधानसभा क्षेत्र झारखंड के गिरिडीह जिले का एक महत्वपूर्ण सीट है, जहां आमतौर पर जनता दल (यूपीए) और भाजपा के बीच प्रतिस्पर्धा रहती है। उनकी निकटता स्थानीय समुदाय से बनती है, जिसके कारण वे दल के नाम से अलग लोकप्रियता रखते हैं।
पूर्व अध्यक्ष कौन हैं जिन्होंने शोक व्यक्त किया?
शोक संवेदना व्यक्त करने वाले पूर्व विधानसभा अध्यक्ष का पूरा नाम और संगठन स्रोतों में उपलब्ध नहीं है। लेकिन ऐसे अध्यक्ष अक्सर स्थानीय स्तर पर लोकप्रिय होते हैं, जिन्होंने गांवों के विकास या शिक्षा के मामलों में योगदान दिया होता है। उनकी उपस्थिति से यह स्पष्ट होता है कि लक्ष्मी नारायण का काम समाज में मान्यता रखता है।
बालेश्वर पांडेय के जीवन में कोई विशेष योगदान था?
उनके जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मिली, लेकिन उनके बेटे का पत्रकार बनना बताता है कि उन्होंने शायद शिक्षा और सत्य के प्रति समर्पण की परंपरा बनाई होगी। ऐसे पिता जो अपने बच्चों को लिखने की आदत देते हैं, वो अक्सर गांव के अंदर ही असली नेता होते हैं — बिना ट्रॉफी के, बिना नाम के।
क्या यह घटना पत्रकारों के लिए संदेश है?
हां। यह घटना बताती है कि जब आप ईमानदारी से लिखते हैं, तो आपका नाम नहीं, बल्कि आपका दर्द भी सुना जाता है। राजनीति कभी-कभी अपने लोगों को भूल जाती है, लेकिन यहां एक विधायक ने एक पत्रकार के घर में शोक के लिए आकर साबित कर दिया कि उसकी आवाज़ असली है।
अगले कदम क्या होंगे?
अभी तक अंतिम संस्कार की तारीख और स्थान स्पष्ट नहीं है। लेकिन जब वह होगा, तो स्थानीय पत्रकार, ग्रामीण नेता और उनके परिवार के दोस्त शायद एक साथ उन्हें अलविदा कहेंगे। और शायद उस दिन, कोई नया पत्रकार भी आएगा — जिसे यह देखकर प्रेरणा मिली कि असली शक्ति राजनीति में नहीं, बल्कि इंसानियत में है।